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स्वस्तिप्रजाभ्यः परिपालयन्तां न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः।
गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु॥
अर्थ: यह श्लोक शांति, धर्म और सर्वकल्याण की भावना व्यक्त करता है। इसमें “गोब्राह्मणेभ्यः” का अर्थ गाय (पर्यावरण और पशु कल्याण) और ब्राह्मण (ज्ञान और धर्म के रक्षक) दोनों के हित से है। अंत में “सभी लोग सुखी हों” की कामना सार्वभौमिक शांति का संदेश देती है।
“जीवनं अनंतं नृत्यति यदि नाश्रयो याति।”
अर्थ: यदि जीवन को आधार (सहारा) नहीं मिलता, तो यह अनंत (अनिश्चित) रूप से नृत्य करता है (भटकता है)।

“मनो बुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”
अर्थ: यह श्लोक हमारे वास्तविक स्वरूप को समझने की गहन शिक्षा देता है। इसका सार यह है कि मैं (आत्मा) न तो मन हूँ, न बुद्धि, न अहंकार और न ही मन की विभिन्न वृत्तियाँ (चित्त)। मैं न कान हूँ, न जीभ, न नाक और न आँखें। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि और न वायु। वास्तव में मेरा सच्चा स्वरूप तो शुद्ध चेतना और आनंद है – मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ। यहाँ ‘शिव’ का अर्थ है कल्याणकारी, पूर्ण और शुद्ध स्वरूप।
“यत्र धर्मस्तत्र जयः”
अर्थ: जहाँ धर्म (न्याय, सत्य और नैतिकता) होता है, वहाँ हमेशा विजय (सफलता) होती है।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः”
अर्थ: जहाँ नारी की पूजा (सम्मान) होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।